भारत को लेकर प्रचंड का नरम रुख उनकी रणनीति या मजबूरी है?

मनोज कुमार त्रिपाठी/ उमेश चन्द्र त्रिपाठी
काठमांडू नेपाल/महाराजगंज (हर्षोदय टाइम्स) : विश्लेषकों का कहना है कि सरकार ने नेपाल के पड़ोसी देशों-भारत और चीन के साथ कूटनीतिक रिश्तों के मामले में ‘औसत’ सा रवैया अपनाए रखा और आने वाले समय में नेपाल की विदेश नीति और कमजोर हो सकती है ।
प्रधानमंत्री का पद संभालने से पहले ही प्रचंड ने एलान किया था कि उनकी पहली विदेश यात्रा भारत की होगी। वह सत्ता में आने के पांच महीने बाद दिल्ली की आधिकारिक यात्रा पर गए। भले ही यह कहा गया कि प्रधानमंत्री प्रचंड ने इस यात्रा के दौरान ऊर्जा व्यापार समेत कई क्षेत्रों में महत्वपूर्ण समझौते किए, लेकिन वह एक साझा बयान जारी नहीं कर पाए। इस यात्रा के दौरान जिन विकास परियोजनाओं का एलान किया गया था, उन्हें लेकर न तो यह स्पष्ट हो सका है कि उन्हें किन शर्तों के तहत बनाया जाएगा, न ही वे धरातल पर उतरती दिख रही हैं।

प्रधानमंत्री प्रचंड ने बीते सितंबर में न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा से लौटते समय चीन का दौरा किया था। चीन में नेपाल के एक पूर्व राजदूत कहते हैं कि प्रचंड अपनी चीन यात्रा के दौरान भी उसकी बेल्ट एंड रोड परियोजना (बीआरआई) समेत अन्य विषयों पर नेपाल के लिए कुछ फायदे की चीज हासिल नहीं कर पाए। हाल के सालों में, भारत के साथ-साथ अमेरिका की दिलचस्पी भी नेपाल में बढ़ रही है।
कई विश्लेषकों ने कहा है कि नेपाली नेताओं को इन शक्तिशाली देशों के हितों को नेपाल के हितों में बदलने की दिशा में सफलता नहीं मिली है। नेपाली प्रधानमंत्री के विदेश मामलों के सलाहकार का कहना है कि प्रचंड के एक साल के कार्यकाल में आर्थिक कूटनीति पर जोर दिया गया और अपने दोनों पड़ोसी देशों के साथ भरोसे का वातावरण तैयार किया गया।
प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रचंड ने दिल्ली, बीजिंग और न्यूयार्क का दौरा किया था। उन्होंने इटली में संयुक्त राष्ट्र के फूड सिस्टम सम्मेलन में भी हिस्सा लिया और हाल ही में दुबई में हुए जलवायु सम्मेलन मे भी शिरकत की।
ज्यादातर विश्लेषकों की दिलचस्पी इस बात में है कि पूर्व विद्रोही नेता, जो कि तीसरी बार सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं, पड़ोसी देशों से संबंधों पर कैसे काम करते हैं और लटके हुए मामलों पर क्या करते हैं। अपनी सरकार का एक साल पूरा होने पर दिए भाषण में प्रधानमंत्री प्रचंड ने कहा कि उन्होंने भारत और चीन के साथ मजबूत और संतुलित रिश्ता बनाया है। उन्होंने कहा कि नेपाल के विकास में दोनों पड़ोसी देशों का सहयोग और समर्थन बढ़ा है। उन्होंने कहा कि भारत, बांग्लादेश और चीन को नेपाल के बिजली कारोबार में साझीदार बनाने के लिए अनुकूल वातावरण बनाया गया है। हालांकि, प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में यह नहीं बताया कि पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद जैसे मसलों को सुलझाने के लिए क्या किया।
भारत में नेपाल के पूर्व राजदूत और रानजीतिक शास्त्र के प्रोफेसर लोकराज बराल को लगता है कि सरकार ने पड़ोसियों के साथ चल रहे कुछ विवादित मसलों को नहीं छुआ, मगर आर्थिक कूटनीति पर जोर दिया है। वह कहते हैं, “सरकार ने भारत के साथ सीमा और सुरक्षा से जुड़े मुद्दे मजबूती से नहीं उठाए। सरकार ने ऐसा जानबूझकर किया, क्योंकि उसे पता था कि इन विषयों पर तुरंत सफलता नहीं मिलेगी। लेकिन विकास के मामले में, जैसे कि भारत को 10 साल में 10 हजार मेगावॉट बिजली बेचना हमारे लिए एक महत्वपूर्ण फैसला है। लोकराज का यह भी मानना है कि नेपाल का भारत का साथ रिश्ता प्रचंड सरकार के दौरान कुछ हद तक बेहतर नजर आ रहा है।
नेपाल के पीएम प्रचंड के दिल्ली दौरे के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वह नेपाल के साथ रिश्तों को नई ऊंचाइयों पर ले जाएंगे। उनका कहना था कि सीमा और अन्य विवादों को सुलझा लिया जाएगा। प्रचंड की इस बात के लिए भी आलोचना हुई थी कि वह दिल्ली में पीएम मोदी के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के साथ बैठक में विदेश मंत्रालय के किसी अधिकारी को अपने साथ नहीं ले गए।
प्रचंड ने कहा था कि उनके भारत दौरे से वहां के राजनीतिक नेतृत्व के साथ भरोसे का वातावरण बना है। उन्होंने यह भी कहा था कि इस दौरे में नेपाल-भारत रिश्तों पर एमिनेंट पर्सन्स ग्रुप (ईपीजी) की रिपोर्ट को स्वीकार करने के भारत के ‘दायित्व’ पर इसलिए बात नहीं की ताकि माहौल खराब न हो जाए।
उनकी इन टिप्पणियों का नेपाली संसद में विरोध हुआ था
मुख्य विपक्षी पार्टी सीपीएन-यूएमएल समेत कई नेताओं ने प्रचंड की इन टिप्पणियों को ‘एक स्वायत्त देश के प्रधानमंत्री की गैर-कूटनीतिक टिप्पणियां करार दिया। जब साल 2015 में नेपाल की संविधान सभा ने नया संविधान लागू किया था, तब भारत ने इससे असंतोष जताया था। इसकी प्रतिक्रिया में भारत की तरफ से अघोषित नाकाबंदी की गई थी। इससे नेपाल-भारत संबंधों पर नकारात्मक असर पड़ा था। भले ही दोनों देशों ने तनावपूर्ण संबंधों को सुधारने के लिए कदम उठाए, लेकिन साल 2020 में नक्शे पर उपजे विवाद ने संबंधों को और खराब कर दिया। उसके बाद से ही भारत ने नेबरहुड फर्स्ट या ‘पड़ोस सर्वप्रथम’ नीति अपनाई है। ऐसा लगता है कि उसने माना है कि धार्मिक पर्यटन, ऊर्जा, जल संसाधन और क्षेत्रीय संचार नेटवर्क का विस्तार करके वह नेपाल के साथ अपने रिश्तों को मजबूत कर सकता है। हालांकि, नेपाल को अतिरिक्त हवाई रूट देने या इससे पहले पंचमेश्वर जैसी परियोजनाओं पर हुए समझौतों पर कोई खास प्रगति नहीं हुई है। बहुत से लोगों को ये भी लगता है कि हाल में भारत की हिंदुत्व आधारित राजनीति का असर नेपाल में भी देखने को मिल रहा है। लेकिन इस संबंध में न तो नेपाल ने कोई टिप्पणी की है, न ही भारत ने। कुछ विशेषज्ञों को लगता है कि चीन ने नेपाल के साथ अपने रिश्तों को राजनीतिक स्तर पर विस्तार देने की कोशिश की है।
ऐसा तबसे हुआ है, जब 2008 में नेपाली गणतंत्र की स्थापना हुई थी। हाल के सालों में दोनों देशों के रिश्ते का दायरा बढ़ा है, जिससे भारत चिंतित हुआ है। फिर 2015 में नेपाल का नया संविधान लागू होने के बाद चीन ने नेपाल के साथ एक ट्रांजिट ट्रीटी समेत कई समझौते किए हैं, जिससे भारत और नेपाल के बीच कड़वाहट और बढ़ गई। चीन और नेपाल ने 2017 में संयुक्त युद्धाभ्यास भी किया था। उसके एक महीने के अंदर ही नेपाल ने चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना में शामिल होने के लिए सहमति दे दी थी। भले ही चीन ने नेपाल के इन्फ्रास्ट्रक्चर, जिसमें सड़कें, जल संसाधन और रेलवे शामिल है, में निवेश की प्रतिबद्धता जाई है, लेकिन अभी तक इन पर काम शुरू नहीं हुआ है।
नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा को लेकर कहा जाता है कि उन्होंने चीनी परियोजनाओं को लेकर चुप रहने की नीति अपनाई है। वहीं प्रधानमंत्री प्रचंड ने चीन दौरे के दौरान वादा किया था कि बीआरआई की परियोजनाओं को तुरंत शुरू कर दिया जाएगा। चीन में नेपाल के पूर्व राजदूत राजेश्वर आचार्य को लगता है कि प्रचंड को चीन की यात्रा के दौरान ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ।
वह कहते हैं कि जब प्रचंड चीन गए थे, उससे पहले ही चीन ने एक नक्शा जारी किया था। मगर प्रचंड ने यह नहीं कहा कि लिपुलेख, लिंपियाधुरा और कालापानी को आपने हमारे नक्शे में नहीं दिखाया है। इसके अलावा, बीआरआई की परियोजनाओं में भी कोई प्रगति नहीं हुई है। 23 साल पहले चीनी राष्ट्रपति की नेपाल यात्रा के दौरान हुए समझौतों को लागू करने की मंद रफ्तार का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि प्रचंड के एक साल के कार्यकाल में चीन के साथ संचार नेटवर्क को बढ़ाने के लिए कुछ औसत सी साझेदारियां हुई हैं
नेपाल सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार, सीमाई इलाकों- हुमला, जुमला में नेपाल और चीन के बीच समस्याएं देखी गई हैं। दहाल की चीन यात्रा के दौरान यह समझौता किया गया था कि दोनों देश संयुक्त रूप से सीमावर्ती इलाकों का निरीक्षण करेंगे।
कोविड महामारी के बाद से नेपाल और चीन के नेताओं के बीच उच्च स्तरीय यात्राएं थम गई थीं। सीमा पर कई नाके बंद हो गए थे, जिन्हें प्रचंड के सत्ता में आने के बाद फिर से खोला गया था।
क्या कहते हैं नेपाली पीएम के विदेश सलाहकार
प्रधानमंत्री के विदेश मामलों के सलाहकार रूपक सपकोटा कहते हैं कि प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल ने दोनों पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में भरोसा बढ़ाते हुए आर्थिक कूटनीति पर जोर दिया है। उन्होंने कहा कि वैश्विक राजनीति में कड़ी भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और क्षेत्रीय शक्तियों (चीन और भारत) में तनाव के बीच आशंका जताई जा रही थी कि नेपाल भू-राजनीतिक अनिश्चितता में उलझ जाएगा, लेकिन अपनी गुटनिरपेक्ष विदेश नीति में हमें कोई दिक्क़त नहीं हुई और इस तरह हम राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर आधारित अंतरराष्ट्रीय रिश्तों को बढ़ावा देने में कामयाब रहे। उन्होंने कहा कि नेपाल जिस तरह से पिछले कुछ सालों से दोनों पड़ोसी देशों के साथ पेचीदगियों का सामना कर रहा है, उसके बीच प्रधानमंत्री प्रचंड ने विश्वास का माहौल बनाते हुए एक साल के अदंर आर्थिक सहयोग के मामले में कई उपलब्धियां हासिल की हैं।
भारत और बांग्लादेश के साथ ऊर्जा व्यापार को एक बड़ी उपलब्धि बताते हुए उन्होंने कहा कि चीन के साथ सीमा पर चार नाके पूरी तरह से चालू हैं, जबकि बाक़ी चार को चलाने के लिए भी समझौता हुआ है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री प्रचंड की भारत यात्रा के दौरान हुए 10 हजार मेगावॉट बिजली भारत को बेचने के समझौते को भी जल्दी ही लागू कर दिया जाएगा। पीएम के विदेश सलाहकार ने यह भी कहा कि नेपाल और चीन इस पर होमवर्क कर रहे हैं कि कैसे बीआरआई को लागू किया जाएगा।
कुछ विदेश मामलों के जानकार कहते हैं कि अमेरिका और चीन के बीच विवाद और भारत-चीन के तनाव भरे रिश्तों के कारण हाल के सालों में इन सभी देशों के नेपाल से जुड़े हित और आपसी होड़ खुलकर सामने आई है।
चीनी के खुलकर नाराजगी जाहिर करने के बावजूद नेपाल की संसद ने यूएस मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन ग्रांट को मंजूरी दे दी थी। प्रचंड के कार्यकाल में ही इसे लागू करने की शुरुआत हो चुकी है। साल 2022 में नेपाल ने अमेरिका के सुरक्षा सहयोग कार्यक्रम- स्टेट पार्टनरशिप प्रोग्राम से हटने का फैसला किया था।
प्रचंड ने अपनी चीन यात्रा के दौरान कहा था कि नेपाल चीन के इसी तरह के सिक्यॉरिटी कॉन्सेप्ट ‘जीएसआई’ में शामिल नहीं होगा। चीनी विशेषज्ञों का मानना है कि नेपाल में भारत और पश्चिम का असर लगातार बढ़ रहा है।
नेपाल की आंतरिक राजनीति और यहां से जुड़े बाहरी हितों पर चीन की बारीक नजर है।
चीन के सिचुआन विश्वविद्यालय के नेपाल केंद्र के उप-निदेशक गाओ लियांग कहते हैं कि प्रचंड ने अपने एक साल के कार्यकाल में चीन के साथ रिश्तों में कुछ अच्छे संकेत दिए हैं और ऐसी उम्मीद भी थी। उन्होंने कहा कि इस बारे में कुछ पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि पिछले साल के आंतरिक राजनीतिक माहौल और भविष्य के घटनाक्रमों का चीन-नेपाल रिश्तों पर क्या असर होगा। लेकिन उनका मानना है कि अभी नेपाल पर भारत और पश्चिमी देशों का प्रभाव ज्यादा है। चीन-नेपाल संबंधों के विशेषज्ञ गाओ लिंआंग का मानना है कि “बढ़ती वैश्विक भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के बीच पश्चिमी जगत और भारत, चीन को विश्व व्यवस्था के लिए चुनौती मानते हुए उसे दबाना चाहते हैं। वह कहते हैं कि ये देश अपनी नीतियों को लागू करने के लिए चीन के पड़ोसी नेपाल को इस्तेमाल करेंगे और इसी से नेपाली नेताओं की समझ की परीक्षा होगी। लिआंग ने कहा कि भारत चाहता है कि वह चीन के साथ अपने संबंधों को पश्चिमी देशों की मदद से संतुलित करे। जब चीन और पश्चिमी जगत के बीच टकराव बढ़ेगा तो इस प्रभाव के दायरे और ताकत में भी इजाफा होगा। ऐसी स्थिति में अगर नेपाल जल्दबाजी में कोई प्रतिक्रिया देता है या सोच-समझकर कोई फैसला लेता है, इसी से नेपाली नेताओं के विवेक की परीक्षा होगी।
लंबे समय से नेपाल के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर नजर रख रहे प्रोफेसर लोकराज बराल जैसे कई विशेषज्ञ उदाहरण देते हैं कि अतीत में कई शक्तिशाली सरकारें भी अपने रुख को मजबूती से पेश नहीं कर पाई थीं। फिर प्रचंड तो सिर्फ 32 सीटों वाली पार्टी के नेता के रूप में सरकार चला रहे हैं और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के मामले में उनकी कई सीमाएं हैं। प्रो. लोकराज ने कहा कि मुझे लगता है कि नेपाल इस समय चीन की तुलना में भारत और अमेरिका के करीब नजर आता है। हमारे नेता लंबी सोच नहीं रखते। वे तुरंत प्रतिक्रिया दे देते हैं। प्रचंड अपने पहले कार्यकाल में काफी उत्साह में थे। आज भले ही वह थोड़े से व्यावहारिक हो गए हैं। अब यह एक ऐसा खेल है कि कैसे अपनी सरकार को बचाकर सत्ता में बना रहा जाए। संविधान सभा के पहले चुनाव में एक प्रमुख पार्टी का नेता चुने जाने और फिर साल 2008 में सत्ता संभालने के बाद प्रचंड ने कहा था कि उन्होंने अपनी पहली यात्रा के लिए चीन को चुनकर ‘एक व्यवस्था (परिपाटी) को तोड़ा है। उस दौरान उनकी सरकार भारत और नेपाली सेना समेत अन्य संस्थाओं से टकराव के बीच नौ महीने ही चल पाई थी। अब उनका यह तीसरा कार्यकाल है, और बीते मंगलवार को पहली बार उनकी सरकार ने एक साल पूरा किया है।
प्रोफेसर बराल मानते है कि सत्ता ध्यान में रखते हुए प्रचंड ने चीन के साथ सम्बंधों को लेकर उतनी सक्रियता नहीं दिखाई, जैसी अपने पहले कार्यकाल में दिखाई थी। लेकिन प्रधानमंत्री प्रचंड और उनकी पार्टी का कहना है कि उन्होंने दोनों पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को बहुत महत्व दिया है और किसी एक का पक्ष लिए बिना देश के हित में फैसले लिए हैं।