
उमेश चन्द्र त्रिपाठी
स्वतंत्र भारत में महंत दिग्विजयनाथ ने राममंदिर आंदोलन की नींव रखी थी। 16वीं सदी से चले आ रहे श्रीरामजन्मभूमि मुक्ति संग्राम को निर्णायक मोड़ देने में अहम भूमिका रही। डीएम ने भी रखी थी उनकी बात।

अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि पर बन रहे भव्य राममंदिर में 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है। इसको लेकर देश भर में तैयारियां चल रही हैं। गोरक्षपीठाधीश्वर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद तैयारियों पर नजर रखते हुए इनके सफलतापूर्वक निर्णायक स्वरूप लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यह अद्भुत संयोग है कि आजाद भारत में मंदिर के लिए आंदोलन की नींव योगी के दादागुरु ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ ने रखी थी। वर्ष 1949 में प्रभु के प्राकट्य के समय भी वह वहां मौजूद थे।
भगवान श्रीराम के मंदिर के पुनर्निमाण के लिए 16 वीं से 20 वीं सदी तक 79 युद्ध हो चुके थे। सदियों के इस संघर्ष को आधुनिक काल में जन-जन का आंदोलन बना देने का श्रेय गोरक्षपीठ को जाता है। नाथ पंथ के जानकार और महायोगी गोरखनाथ विश्वविद्यालय के कुलसचिव डॉ. प्रदीप राव बताते हैं कि 1855 से 1885 तक महंत गोपाल नाथ गोरक्षपीठाधीश्वर थे। उन्होंने मुसलमानों को समझाकर जन्मभूमि हस्तांतरण की पृष्ठभूमि तैयार कर ली थी लेकिन अंग्रेजों आड़े आ गए और समाधान निकलते-निकलते रह गया।
महंत गोपाल नाथ के बाद उनके शिष्य योगिराज बाबा गम्भीरनाथ और गोरक्षपीठाधीश्वर महंत ब्रह्मनाथ ने भी रामजन्मभूमि मुक्ति के लिए प्रयास जारी रखा। बात, ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया तक पहुंची तो उन्होंने बाबरी मस्जिद का नक्शा मंगवाया। प्रांगण के बीच में दीवार बना दी गई। आदेश हुआ कि मुसलमान भीतर नमाज पढ़ें और हिन्दू बाहर के चबूतरे पर पूजा पाठ करें। महंत दिग्विजयनाथ ने 1935 में गोरक्षपीठाधीश्वर बनने के साथ ही उन्होंने मंदिर आंदोलन की भी कमान संभाल ली। बताते हैं कि वह राममंदिर आंदोलन में इस तरह जुटे थे कि उन्हें रामलला के प्राकट्य का आभास हो गया। 22-23 दिसम्बर 1949 की रात रामलला के प्राक्ट्य के नौ दिन पहले से ही वह अयोध्या में मौजूद थे। उस रात सदियों से चले आ रहे जन्मभूमि मुक्ति संग्राम का स्वतंत्र भारत में सूत्रपात हुआ। भारी भीड़ के साथ गोरक्षपीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ आरती में शामिल थे।
मंदिर आंदोलन से जन-जन को जोड़ा
राममंदिर आंदोलन का इतिहास और रिकार्ड्स बताते हैं कि 23 दिसम्बर 1949 को अयोध्या थाने में एक एफआईआर दर्ज हुई थी। इसमें कहा गया था कि एक बहुत बड़े जन समूह द्वारा भगवान श्रीराम की मूर्ति स्थापना की गई। जबकि संत समाज मानता है कि उस रात जन्मभूमि पर रामलला का प्राकट्य हुआ था। बहरहाल, रामलला प्राक्ट्य की खबर जंगल में आग की तरह आसपास के जिलों और ग्रामीण क्षेत्रों तक फैल गई। इसके बाद भक्तों के जत्थे श्रीराम का जयकारा लगाते हुए दिन-रात जन्मभूमि पर पहुंचने लगे।
महंत दिग्विजयनाथ ने मंदिर आंदोलन से जन-जन को जोड़ दिया। इसी दौरान पुलिस ने बलपूर्वक विवादित ढांचे का दरवाजा बंद कर ताला लगा दिया। पुलिस की इस कार्रवाई के खिलाफ अयोध्या में अनशन शुरू हो गया। फैजाबाद के उस समय के डीएम केके नायर ने जन्मभूमि को विवादित स्थल घोषित कर दिया। आईपीसी की धारा-145 के तहत प्रशासन ने इस पूरे क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया। तब महंत दिग्विजयनाथ ने रामलला की मूर्ति की नियमित पूजा-अर्चना की मांग की और डीएम ने इसकी व्यवस्था कराई।
सड़क से संसद और न्यायालय तक लड़ी लड़ाई
कुछ समय बाद ठाकुर गोपाल सिंह नाम के एक भक्त ने फैजाबाद के सिविल जज न्यायालय में एक याचिका दाखिल की। इस पर 16 जनवरी 1950 को अंतरिम निषेधाज्ञा जारी करते हुए न्यायालय ने केंद्रीय गुंबद के नीचे श्रीराम की मूर्ति को हटाने या पूजा में हस्तक्षेप किए जाने पर रोक लगा दी। डॉ. प्रदीप बताते हैं कि आजाद भारत में यहीं से रामजन्मभूमि मुक्ति संघर्ष का आरंभ हुआ। आगे चलकर यह लड़ाई सड़क से संसद और न्यायालय तक एक साथ चली। गोरक्षपीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ हर मोर्चे पर अगुवाई करते नज़र आए।
महंत दिग्विजयनाथ 1967 में गोरखपुर से सांसद बने। 1969 में समाधि लेने तक वह लगातार रामजन्म भूमि आंदोलन में सक्रिय रहे। आचार्य धर्मेन्द्र महाराज ने एक बार कहा था- ‘महंत दिग्वियजनाथ ने गोरक्षपीठ को इनफेन्ट्री बटालियन का हेड क्वार्टर बना दिया और खुद उसके कमाण्डर इन चीफ बने। रामजन्म भूमि के मुक्ति संघर्ष में उनकी भूमिका वही है जो किसी मोबाइल सेट में उसके सिमकार्ड की होती है।